परिचयः-
ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा, गैर सरकारी अग्रणी स्वयं सेवी संस्थान है जो अपनी सामाजिक एवं लोक उपकारी मानवीय सेवाओं के लिए बनी है।
जीवन के अंधेरे पथ में सूरज बनकर रोषनी देने वाले माता-पिता को एकाकी जीवन बिताने या असहाय, रूग्णावस्था में दर-दर की ठोकरें खा कर भीख मांगने पर मजबूत करने वाली परिस्थितियां पष्चिमी देषों की सौगात है, क्योंकि बढ़ती शैक्षिक प्रतिस्पर्धा, अधिक धन कमाने की लालसा, उच्च पदों पर आसीन होने की लिप्सा (ईच्छा) एवं पारिवारिक असहयोग, समय का अभाव, व्यवसाय में अत्याधिक व्यस्त एवं आत्मकेन्द्रित होना तथा दाम्पत्य जीवन को अधिक सुखद बनाने की लिप्सा बलवती होने से बच्चों एवं युवाओं का उपेक्षा भाव सामान्य होता जा रहा है।
स्माचार पत्रों के माध्यम से जानकारी मिलती है कि मांगुजी जैसे वृद्ध एवं निराश्रित लोग कलेक्ट्री चैराहे पर पड़े है। ऐसे में नितान्त उपेक्षित एवं निराश्रितों की सेवा करने की भावना रखने वाले कतिपय उत्साही युवकों को मन पिघलता है, तब जन्म होता है ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा जैसी संस्था का, जो उनकी सार संभाल कर उन्हें एकाकीपन से उबार कर उनकी उदर पूर्ति के साथ-साथ उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में वांछित सुधार लाकर उन्हें समाजोपयोगी बनाने के साथ ही उनमें आध्यात्म की जोत जला सके। संस्था आंखो की रोषनी तो नहीं लौटा सकती उप उनमें नया दृष्टिकोण पैदा कर सकती है। उनकी षिथित पड़ी मांसपेषियों को फौलादी तो नहीं बना सकते किन्तु उनकी वार्द्धक्य (बुढे़पन) की भावना को कम करके उन्हें योग क्रियाओं के माध्यम से सुदृढ़ कर ही सकते है। उन अभागे माता-पिताओं के शेष जीवन को आनन्दमय बना देनें का प्रयास तो कर ही सकते है। इस हेतु विचार विमर्ष एवं मार्गदर्षन के माध्यम से संस्था गठित कर उनके कल्याण का मार्ग प्रषस्त कर उन्हें समाजोपयोगी नागरिक बनाने हेतु संस्था का पंजीकरण कराते है।
28 जून सन् 2007 को राजस्थान संस्था पंजीकरण अधिनियम 1958 के अन्तर्गत जन्म लेता है ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा द्वारा संचालित वृद्धाश्रम ‘‘आश्रय’’।
60 साल की आयु के बाद अपने आप को बुढ़ा समझना, परिवार के सदस्यों का सहयोग न मिलना, अपने आप को अकेला मानना, समाज से कट जाना अर्थात शारीरिक, मानसिक अक्षमताओं, पारिवारिक उदासीनता या उपेक्षा के कारण विभिन्न प्रकार के रोग वृद्ध व्यक्ति को घेर लेते है। समय-समय पर उपचार न होने के कारण शारीरिक क्षमता तेजी से घटने लगती है। वह अपने अंतिम समय की प्रतीक्षा में ही अपना शेष जीवन व्यतीत कर देता है। वृद्धावस्था बड़ी दुःखदायी हो जाती है।
ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा, गैर सरकारी अग्रणी स्वयं सेवी संस्थान है जो अपनी सामाजिक एवं लोक उपकारी मानवीय सेवाओं के लिए बनी है।
जीवन के अंधेरे पथ में सूरज बनकर रोषनी देने वाले माता-पिता को एकाकी जीवन बिताने या असहाय, रूग्णावस्था में दर-दर की ठोकरें खा कर भीख मांगने पर मजबूत करने वाली परिस्थितियां पष्चिमी देषों की सौगात है, क्योंकि बढ़ती शैक्षिक प्रतिस्पर्धा, अधिक धन कमाने की लालसा, उच्च पदों पर आसीन होने की लिप्सा (ईच्छा) एवं पारिवारिक असहयोग, समय का अभाव, व्यवसाय में अत्याधिक व्यस्त एवं आत्मकेन्द्रित होना तथा दाम्पत्य जीवन को अधिक सुखद बनाने की लिप्सा बलवती होने से बच्चों एवं युवाओं का उपेक्षा भाव सामान्य होता जा रहा है।
स्माचार पत्रों के माध्यम से जानकारी मिलती है कि मांगुजी जैसे वृद्ध एवं निराश्रित लोग कलेक्ट्री चैराहे पर पड़े है। ऐसे में नितान्त उपेक्षित एवं निराश्रितों की सेवा करने की भावना रखने वाले कतिपय उत्साही युवकों को मन पिघलता है, तब जन्म होता है ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा जैसी संस्था का, जो उनकी सार संभाल कर उन्हें एकाकीपन से उबार कर उनकी उदर पूर्ति के साथ-साथ उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में वांछित सुधार लाकर उन्हें समाजोपयोगी बनाने के साथ ही उनमें आध्यात्म की जोत जला सके। संस्था आंखो की रोषनी तो नहीं लौटा सकती उप उनमें नया दृष्टिकोण पैदा कर सकती है। उनकी षिथित पड़ी मांसपेषियों को फौलादी तो नहीं बना सकते किन्तु उनकी वार्द्धक्य (बुढे़पन) की भावना को कम करके उन्हें योग क्रियाओं के माध्यम से सुदृढ़ कर ही सकते है। उन अभागे माता-पिताओं के शेष जीवन को आनन्दमय बना देनें का प्रयास तो कर ही सकते है। इस हेतु विचार विमर्ष एवं मार्गदर्षन के माध्यम से संस्था गठित कर उनके कल्याण का मार्ग प्रषस्त कर उन्हें समाजोपयोगी नागरिक बनाने हेतु संस्था का पंजीकरण कराते है।
28 जून सन् 2007 को राजस्थान संस्था पंजीकरण अधिनियम 1958 के अन्तर्गत जन्म लेता है ऊँ शान्ति सेवा संस्थान भीलवाड़ा द्वारा संचालित वृद्धाश्रम ‘‘आश्रय’’।
60 साल की आयु के बाद अपने आप को बुढ़ा समझना, परिवार के सदस्यों का सहयोग न मिलना, अपने आप को अकेला मानना, समाज से कट जाना अर्थात शारीरिक, मानसिक अक्षमताओं, पारिवारिक उदासीनता या उपेक्षा के कारण विभिन्न प्रकार के रोग वृद्ध व्यक्ति को घेर लेते है। समय-समय पर उपचार न होने के कारण शारीरिक क्षमता तेजी से घटने लगती है। वह अपने अंतिम समय की प्रतीक्षा में ही अपना शेष जीवन व्यतीत कर देता है। वृद्धावस्था बड़ी दुःखदायी हो जाती है।
No comments :
Post a Comment